दोस्तों आज एक ऐसे विषय पर आप सबका ध्यान ले जाना चाहता हूँ जिसके बारे मे कोई विशेष चिंतन नहीं किया जाता है
कुछ प्रश्न मेरे ह्रदय को अक्सर परेशान करते रहते है
आखिर हम मानव इतिहास का अस्तित्व क्या है ?
आदि मानव से चलकर यहाँ तक की यात्रा मे क्या क्या विचार पर चिंतन हुआ है ?
धर्म और भगवान् का आविष्कार कैसे हुआ ?
भगवान् से हम डरते क्यों है प्रेम क्यों नहीं कर पाते है ?
और भी ना जाने कितने ही प्रश्न जिनका कोई प्रामाणिक सा हल जान नहीं पड़ता है, पौराणिक धर्म ग्रंथ और शास्त्रों का विवेचन करने के बाद भी कुछ सत्य की प्राप्ति नहीं होती अपितु और उलझता ही चला गया।
बहुत विद्वान और जानकारों के साथ विभिन्न उपलब्ध ज्ञान और विज्ञानं पर चर्चा भी की है किंतु कुछ हाथ नहीं लगा।कुछ मंथन है जिनमे जो आप सभी से साँझा करना चाहता हूँ, शायद कुछ और प्रश्न आगे भविष्य में सामने आए या फिर यही हल भी हो सकता है।
यदि मानव जाति ही प्रकृति की श्रेष्ठ कृति है तो आदि मानव से मनुष्य जीवन की शुरुआत हुई थी “पाषाण युग” से लकड़ी, फिर धातु और आज ऊर्जा के विभिन्न साधनों का आविष्कार हो चूका है आज भैतिक विज्ञानं की उपलब्धियां चमत्कार से कम नहीं है।
लेकिन आज भी पुराने ऋषि मुनीयों के विज्ञानं का 10 प्रतिशत ही शोध हुआ है। अर्थात आज के विज्ञान को पौराणिक व्यव्हारिकरण ही कहना सही होगा, क्योंकि कुछ भी ऐसा नहीं है जिस पर पहले विचार ना हुआ हो।
देखा जाए तो विज्ञानं केवल उपकरण का निर्माण कर पौराणिक शोध को प्रमाणित ही करता है, ज्ञान और विज्ञानं दोनों एक दूसरे के पूरक ही है।
मेरा चिंतन यहाँ इनको प्रमाणित करना नहीं है अपितु यह बतलाना है कि शास्त्रों ग्रंथो में इतना रहस्यात्मक लिखित है कि हम उसका शब्दार्थ तो कर पाते हैं किंतु भावार्थ जानने का सामर्थ्य नहीं है।
रहस्य शायद इसलिये भी है कि मुनीयों ने या तो कुछ ऐसा जान लिया जिसको सभी जान जाते तो उसके दुष्परिणाम हो सकते है दुरूपयोग भी हो सकता है, या फिर वो चाहते थे हम कठिन परीक्षा से गुजरते हुए अपनी योग्यता दिखाए और जो योग्य होगा वो रहस्यात्मक ज्ञान को सही समझ ही जाएगा।
शास्त्र और उनके सिद्धान्त शरीर और उसके भीतर के बारे मे ही ज्यादा कहते है बजाय इसके की यह सृष्टि बाहर से जो दिखाई देती है, इसीलिये ही उन्होंने बिना कोई उपकरणों के प्रयोग के ही सारे ब्रह्मांड की दशा दिशा स्तिथियों का पूरा सटीक गणित लिख डाला। ध्यान योग, प्रणायाम का इसीलिये बढ़ चढ़कर वर्णन किया गया क्योंकि भीतर की यात्रा उसके द्वारा ही संभव है।
महृषि पतंजलि का योग, चरक का आयुर्वेद हो, जीव विज्ञान हो या ज्योतिष विज्ञान हो सभी भौतिकी से परे हैं और गूढ़ रहस्यात्मक सिद्धान्त है ।
कुछ भी भावार्थ रहा हो किन्तु इतना तय है कि सभी ग्रन्थ मानव के कल्याण और जीवन यात्रा को सुगम बनाने के लिए हैं, लेकिन हम लोगो ने अपनी मति अनुसार ही उनका शब्दार्थ निकाल लिया है। यहाँ तक कुछ तो ऐसे लोग भी है जिन्होंने इन ग्रंथों का लाभ अपने व्यावसायिक कार्यो के लिए किया हुआ है और समाज को ओर अँधेरे मे, अन्धविश्वाश मे धकेलते है।
जैसे ज्योतिष विज्ञानं मे राहु-केतु, मंगल-शनि का तो ऐसा प्रकोप है कि अरबों की जनसँख्या मे किसी एक व्यक्ति विशेष के पीछे यह गृह हाथ धोकर पड़े है और अपना कार्य इनको कुछ है नहीं। क्या कभी हमने यह सोचा है कि हम भारत मूल के या एशिया के निवासियों को ही क्यों यह गृह तंग करते है विदेशों मे इनका कोई प्रभाव नहीं है। इतनी पूजा पाठ जाप दान पुण्य हम लोग करते है, जगह-जगह मंदिर देवी देवताओं का चढ़ावा भरने के बाद भी हम दुनिया से पिछड़े हुए है। बड़ी-बड़ी खोज उपलब्धियां, हर प्रतिस्पर्धा मे विदेशी हमसे आगे हैं।
कही ऐसा तो नहीं है कि हमसे चढ़ावा दान लेकर काम उनका हो रहा हो।
धन की समस्या को तो छोड़ो सारा जीवन हम लोग गधों की तरह बेड़ियो मे जकड़े हुए बोझ ढोते है और एक दिन मर जाते है अगली पीढ़ी को बेड़िया बाँधकर। जीवन यात्रा का आनंद प्राप्त करने का चिंतन करने का समय ही नहीं रेह जाता है।
इसमें भी यहाँ पूजा पाठ, धार्मिक उपाय हम श्रद्धा या भक्ति भाव से तो कदापि नहीं करते है, वो प्रेम तो किसी-किसी मीरा को ही होता है जो ज़हर का प्याला पी जाए।
संचित कर्म, आगामी कर्म, पूर्व कर्म, इन बड़े बड़े शब्दो का ऐसा डर बना हुआ है कि शरीर कहीं, मन कही, बुद्धि कहीं, सब अलग अलग कर्म कर रहे होते है। कोई ऐसा कर्म होता ही नहीं जो पूरी संतुष्टि से पूरी समग्रता से किया जाय।
फिर क्या ये दिखावा है?
किसको धोखा दे रहे है हम?
हम लोगो ने धर्म का, कर्म का ऐसा आडंबर बना दिया है जो हमारे सुविधा क्षेत्र मे हैं वही सत्य है, वही धर्म है, बाकी सब अधर्म है।
धर्म के नाम पर रीती रिवाज़ो, समय के प्रचलन को मानने वाले हम लोग यह भी भूल जाते है कि हमारे पूर्वज किसी मान्यता को क्यों निभाया करते थे?
इसका वास्तविक कारण क्या था?
कुछ बाते तो बिलकुल एक कहानी जैसी ही है
एक व्यक्ति को भूलने की बीमारी थी जब कभी बाजार जाता तो धोती मे सामान के साथ कुछ गाँठ बाँध लेता ताकि उसे याद रहे, और आज उसका पोता भी ऐसे ही गाँठ बाँधकर बाजार जाया करता है। ‘
मुझे भी जब अपने बेटे को दुध पिलाना होता है तो उसे राक्षस का या बिल्ली का डर दिलाता हूँ, जितना बड़ा काम उतना बड़ा डर और यही चलता रहेगा पीढ़ियों तक भला बच्चे को दुध की पौष्टिकता के लाभ बतलाऊ तो भी वो ना पिए।
मंगलवार, गुरुवार को बाल नाख़ून न काटना, न धोना, यह सिर्फ पानी बचाने के लिए था क्योंकि कुएं और नदियों से पानी लाना पड़ता था और पानी संगृहीत करने की बाँध जैसी खोज नहीं हुई थी।
गर्मी मे यह खाओ, सर्दी मे यह खाओ, साल मे 2 बार नवरात्री व्रत पालन यह सब शऱीर को स्वस्थ रखने के नियम हैं ताकि जलवायु बदलने से पहले शरीर को तैयार कर लिया जाये। रवि की फ़सल, खरीफ की फसल, जलवायु के फल उपलब्ध थे तो वैसे ही नियम थे।
आज नवरात्री के नाम पर विशेष थाली, बर्गर, पिज़्ज़ा का व्यापारीकरण हो गया है। 21वीं सदी के आधुनिक विश्व मे रहने वाले हम यह भूल गए कि आज कॉल्ड स्टोरेज जैसी तकनीक विकसित होने के बाद हर समय, हर फल सब्ज़ी अनाज उपलब्ध है। यातायात संसाधन के आविष्कार के बाद तो दुनिया के किसी भी कोने मे किसी भी फ़ल सब्ज़ी का आनंद ले सकते हैं भले ही वहां पैदावार न होती हो। लेकिन नहीं पारम्पराओं और अंधी आस्था के नाम पर कोई हमें कुछ बेच जाए हम बोझ ढोने वाले गधे हैं ।
रात को झाड़ू ना मारना, नाख़ून ना काटना, जब ये नियम थे तब बिजली का अविष्कार नही हुआ था, आजकी तरह संगेमरमर के फ़र्श नहीं थी, खाना भी साँझ को ही आँगन मे बनता था। झाड़ू मारने से कई बार जरुरी सामान भी कुड़े के साथ बाहर फिंक जाता था और धूल उड़ती तो खाने मे पड़ती, नाख़ून काटने को चाकू का प्रयोग होता था आज की तरह कटर नहीं थे।
सावन मे दुध और दुध से बनी चीज़ का परहेज करो शिवलिंग पर चढ़ा दो, मुझे एक बात समझ नहीं आती हमारा ईश्वर देने वाला है कि दान चढ़ावा लेने वाला है ।
दोस्तों आजकल की गाय-भैसे बाहर घास चरने नहीं जाते है कि सावन मे, बरसात मे क़ीडे मकोड़े उनके पेट मे जाने से दुध विषाक्त होता हो इतने साफ़ सुथरे प्लांट और पाश्चुरीकृत तरीके से दुध उत्पादन होता है कि विष का कोई नामो निशान तक नहीं है । और भी ना जाने कितने ही नियम है जो पुराने समय की गांठे है आज विज्ञानं की इतनी उपलब्धि के बाद मूर्खतापूर्ण बाते करना केवल उपहास का कारक ही है।
आशा करता हूँ मिलकर अपनी चेतना को ऐसे आयाम पर ले जाएंगे जो सबका कल्याण करें।
सादर प्रणाम।