ईश्वर भक्ति संभवतः मुझे, संस्कारो में ही मिली थी। परन्तु समय, परिवर्तन अथवा सुसंगति में मै कब धर्मानुगामी से ईश्वरानुरागी बन गया, ज्ञात ही नहीं हुआ। धर्म-पथ के अनुगामी, जहां रीतियों के अनुशासन का मनो योग से पालन किया करते हैं, ईशवर से मित्रता होते ही, मै इसके विपरीत, सभी बंधनो से मुक्त, स्वतंत्र हो गया। किसका भय होता मुझे?
सर्वशक्तिमान मेरे मित्र जो हैं। मेरी भक्ति असीमित हो गयी। प्रेम की शक्ति कितनी व्यापक है, इस का मुझे धीरे-धीरे भान होने लगा। सत्य कहता हूँ – प्रभु से प्रेम करके देखिये, अंतर्मन तक तर जाएंगे। मीरा या सूर बन कर क्या आनन्द है, यह तो इस प्रेम-सागर के जल में उतरकर की ज्ञात होगा। इसी सन्दर्भ में एक घटना वाचता हूँ – सूरदासजी, प्रतिदिन संध्या आरती में बिहारीजी की लीला का अत्यंत सुन्दर वर्णन करते थे। उपस्थित लोग झूम उठते थे, साथ ही आश्चर्य चकित भी होते थे क्योंकि वे अपने भजन में गोविन्द के, जिस रंग के परिधान का वर्णन करते, कान्हा वही परिधान पहने होते थे। सभी पुजारीगण चकित होते कि दृष्टि ही न होते हुए भी सूरदासजी, प्रभु के परिधान एवं सज्जा का इतना सटीक वर्णन कैसे करते थे। उन्हें ईर्ष्या हुई।फलस्वरूप उन्होंने सूर की परीक्षा लेनी चाही और अगली संध्या उन्होंने केशव को वस्त्र सज्जा रहित रखा, अर्थात उन्हें कुछ भी नहीं पहनाया। संध्या हुई तथा आरती प्रारम्भ हुई। और यह क्या – सूरदासजी, बिना किसी संकोच अथवा क्षोभ के भजने लगे “गोविन्दनं गम-नंगा……”पुजारीगणो के मुख खुले के खुले रह गए। उन्हें ज्ञात हो गया था कि चक्षु होते हुए जो, वे लोग नहीं देख पाते थे, वह यह भक्त, चक्षु-विहीन अवस्था में भी देखने में सक्षम हैं। तिस पर उनकी प्रभु से ऐसी लगन कि उन्हें नग्न कहने में भी सूर ने किंचित भी संकोच नहीं किया।ऐसा अपनत्व केवल प्रेम मे ही संभव है। (जयश्रीकृष्ण)
ईश्वर से प्रेम हो तो उनसे एक अंतरंग सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। यही भाव, इस सम्बन्ध को भक्ति से कहीं ऊपर ले जाता है। ईश्वर और आपमें कोई अतिशयोक्ति—–कोई संकोच——कोई अंतर नहीं रह जाता। आप ही बताइये, अपने माता-पिता से बातचीत करने या उनसे कुछ मांगने में आपको कभी कोई संकोच हुआ है? चलिए विषय पर लौट आते हैं।उपरोक्त कहने से मेरा आशय यह था कि आडम्बर को त्यागकर यथार्थ रूप में लगा हुआ ध्यान ही हमे उच्चतर सोपान की प्राप्ति करवाएगा। रीति, प्रक्रिया, विधि के बंधक इसी में फंसे रह जाएंगे।आध्यात्म में उपरगामी होना है तो बंधन मुक्त होना होगा। अपने गुरु शरत सर के अनुकरण में मैंने यही सीखा। ईश्वर मुझ मे एवं मैं ईश्वर हो गया। पथ पर, घर में, किसी अबोध की मुस्कान में, मुझे परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं। सुनता हूँ सब कहते हैं, माता रानी का बुलावा आया है।परंतु मुझे माता नहीं बुलाती क्यों कि वह तो स्वयं मेरे संग रहती हैं। मेरी भक्ति तर्क संगत हो गयी, परंतु प्रेम तर्क मुक्त गया।
वस्तुतः हम सब का मन, वह धाम है, जहाँ भावनाओ का वास है। इसमें अनुराग, वात्सल्य, दया, करुणा एवं सहानुभूति के साथ-साथ; राग, द्धेष, ईर्ष्या, क्रोध, मद, लोभ आदि किसका वास होगा, यह हम पर निर्भर करता है। कहते हैं, देह रुपी कुरुक्षेत्र में, सत्पुरुषों के मन रुपी रथ को अग्रसर करने वाले, इन्द्रिओ रुपी अश्वो की डोर, स्वयं श्रीकृष्ण थाम लें, तो उनकी सद्गति निश्चित है। हमारी इस विवेचना में, आइये इसी का तर्क संगत विश्लेषण करते हैं।
सदियों से कवियों और शायरों ने “दिल” शब्द का बहुतायत उपयोग किया है। उदाहरणतः “मेरा दिल भी कितना पागल है”, “आज मेरा दिल टूट गया” और न जाने क्या-क्या। भक्ति में भी कहते हैं कि “मेरे परमात्मा का वास मेरे ह्रदय में है।” परन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से, दिल (Heart), शरीर का एक अंग है जो, नसों तथा धमनियों (Arteries) के माध्यम से रक्त का संचार करता है। फिर हम अपने ह्रदय को प्रेम का स्त्रोत क्यों कहते हैं? क्यों प्रेमी, प्रेयसी के लिए वैलेंटाइन दिवस पर दिल के आकार के उपहार लेता है? क्यों‘ माँ के दिल’ की कहानियां लिखी जाती हैं?यह जानने के लिए हमे समझना होगा कि क्या है हमारे सीने के भीतर जहाँ से प्रेम अथवा घृणा उपजती है। आध्यात्मिक और यौगिक ज्ञान में, हमारे पार्थिव शरीर के अतिरिक्त भी‘ शरीर’ होते हैं। इन्हे हम सामानांतर-शरीर (Parallel Body) या सूक्ष्म शरीर (Subtle Body) कह सकते हैं।
ऊर्जा सम्बन्धी सभी प्रक्रियाएं तथा यौगिक क्रियाओं का केंद्र यही सूक्ष्म शरीर है। इसी में स्थित हैं सप्त-चक्र, जो किसी एक्सरे या एम्.आर.आई से नहीं दिखाई पड़ता, परन्तु पूरा विश्व आज चक्रो के महत्व को जानता भी है और मानता भी है। उपरोक्त सन्दर्भ में हम इन चक्रो में “अनाहत चक्र” (Heart Chakra) की बात कर रहे हैं।आकार में सबसे बड़ा, अनाहत चक्र, हमारे मन, विवेक, विवेचना तथा भावनाओ का नियंत्रक (Controller), ग्रहण-कारक(Receiver) तथाप्रक्षेपक (Transmitter) माना जाता है। किसी के विषय में हमारे मस्तिष्क में जो धारणा के बीज होते हैं, उसी की फसल हमारे अनाहत चक्र से उपजती है। “अनाहत” अर्थात जो जिसे आहत (घायल) न किया जा सके। यह चक्र सम्पूर्ण चक्र-प्रणाली का केंद्र माना गया है। इस का रंग हरा होने के कारण, इस चक्र की सक्रिय अवस्था (Activated status), मनोविज्ञानिक एवं भावनात्मक एकता और सामंजस्य का प्रतीक है। अर्थात Perfectly Coordinated Phychological & Emotional Balance. एक सक्रिय एवं खुला हुआ अनाहत चक्र कारक है – अथाह प्रेम का, जिसमे, अपने, पराये, समाज और पूरी दुनिया के लिए प्यार और अपना पन हो। और यही प्रेम यदि ईश्वर से हो तो? रोम-रोम में ईश्वर का वास हो जाता है। फिर उसे ढूंढने के लिए भटकना कैसा? पालक बंद करके भी दर्शन, और खुली आँख भी दर्शन। यही कारण है कि अनाहत चक्र भावनाओ की गंगोत्री समान है, और सभी पद्य एवं गद्य, ह्रदय का वर्णन करते हुए, इसीलिए सीने की ओर इंगित करते हैं।
प्रेम की शक्ति असीमित है और इसे अर्जित करना सहज। सभी प्रकार की भक्ति और तपस्या से उत्तम है ये अनुराग। प्रेम की पराकाष्ठा ही ईश्वर की प्राप्ति है। दरअसल ईश्वर भी तो हम सभी को अकारण और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं, फिर उनका अनुकरण करते हुए क्यों न हम भी परस्पर प्रेम तथा वात्सल्य का भाव रखें और पृथ्वी को ही स्वर्ग बना दें।
शरत सर को समर्पित