यह संसार एक ऐसी विचित्र लीला है जिसे समझना बुद्धि की क्षमता से परे है|
यदि परमात्मा ही सब कुछ है तो जिसे हम “मैं” कहते हैं यानि हम सब भी परमात्मा के ही अंश हैं| फिर अच्छे-बुरे सभी लोग भी परमात्मा के ही अंश हैं|
परमात्मा ही कर्ता हैं तो सारे अच्छे-बुरे कार्य भी उसी के द्वारा ही सम्पादित हो रहे हैं|
इस तरह जब सारे लोग परमात्मा के ही अंश हैं तो हमारा भी एकमात्र सम्बन्ध परमात्मा से ही है|
यहाँ कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं ——
(१) क्या हम एक-दूसरे के रूप में स्वयं से ही विभिन्न रूपों में मिलते रहते हैं|
(२) अच्छे-बुरे व्यक्ति, और पाप-पुण्य में भेद कैसे करें?
(३) परमात्मा ही अगर कर्ता है तो क्या वह भी कर्म फलों में बंधा है?
(४) हम ही कर्म फलों को भोगने के लिए बाध्य क्यों हैं?
इन सब प्रश्नों पर मनन करने के पश्चात् जिस निर्णय पर मैं पहुँचा हूँ उसे व्यक्त कर रहा हूँ|
(१) आध्यात्मिक रूप से यह सत्य है कि हम स्वयं ही एक दूसरे से विभिन्न रूपों में मिलते रहते हैं| एकमात्र “मैं” ही हूँ, दूसरा अन्य कोई नहीं है| अन्य सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं|
(२) परमात्मा प्रदत्त विवेक हमें प्राप्त है| उस विवेक के प्रकाश में ही सारे निर्णय लें और उस विवेक से ही सारे कार्य करें| वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं|
(३) परमात्मा के संकल्प से सृष्टि बनी है अतः वे सब कर्मफलों से परे हैं| पर अपनी संतानों के माध्यम से वे ही उनके फलों को भी भुगत रहे हैं|
(४) हम कर्म फलों को भोगने के लिए अपने अहंकार और ममत्व के कारण बाध्य हैं|
आप सब मेरी ही निजात्माएँ हैं| आप सब में व्यक्त परमात्मा को नमन|
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